O sadanira jagdish chandra mathur
12th Hindi

ओ सदानीरा || जगदीश चंद्र माथुर || जगदीश चंद्र माथुर वस्तुनिष्ठ प्रशन और सारांश

ओ सदानीरा || जगदीश चंद्र माथुर || जगदीश चंद्र माथुर वस्तुनिष्ठ प्रशन और सारांश


  

      जगदीश चंद्र माथुर वस्तुनिष्ठ प्रशन 

प्रशनजगदीश चंद्र माथुर का जन्म कब हुआ था  ? 

उत्तर :  जगदीश चंद्र माथुर का जन्म 16 जुलाई 1917 को हुआ था |

Telegram Join

प्रशन : जगदीश चंद्र माथुर का निधन ( मृत्यु ) कब हुआ था ? 

उत्तर : जगदीश चंद्र माथुर का निधन 14 मई 1978 को हुआ था |

प्रशन: जगदीश चंद्र माथुर का जन्म स्थान कहां है ?

उत्तर : जगदीश चंद्र माथुर का जन्म स्थान शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश है |


       जगदीश चंद्र माथुर हिंदी सारांश 

 जगदीश चंद्र प्रतिभाशाली नाटक का लेखक संस्कृति कर्मी प्रशासक रहे जगदीश चंद्र माथुर का कार्य क्षेत्र बिहार था और वे साहित्य संस्कृति के संसार में बिहार की ही विशिष्ट प्रतिभा के रूप में जाने जाते थे|  नाटक और उसकी बहू विद  शास्त्री   समाहित थी |  इसका प्रमाण उनकी छोटी बड़ी तमाम नाते के दिया है जो मंजन और अभिनेता की दृष्टि से सफल मानी जाती है |  जगदीश चंद्र माथुर लेखन में रचना भूमि का दायरा अपेक्षित रूप से निर्मित और छोटा है|  प्रत्यक्ष पर्यवेक्षण और अनुभव की साइट न्यूनता भी है जिसे अध्ययन करना आदि के द्वारा पूरा करते हैं| किंतु उनके साहित्य में प्रकट होता है और रूचि के इस लेखक के साहित्य को ऊंचाई प्रदान करता है|  श्री माथुर ने लिखना पर्याय चौथे दशक में ही गुरु  शुरू कर दिया था किंतु उन्होंने एक मनासवी लेखक के रूप में अपनी पहचान  नेहरू के युग में बनाए थे |  जगदीश चंद्र माथुर ललित, वित्त व्यंजन में निबंध लिखें|   यह निबंध व्यक्ति, भाव और वस्तु प्रधान है|  इनमें से एक निबंध उनकी पुस्तक’ बोलते   छन से प्रस्तुत है |  जिसमें उनकी टीम कोठियों के निबंधों का  समाहार हो जाता है |  यह निबंध सदानीरा गंडक निमित्त बनाकर लिखा गया है|  प्रवाहित होता है गंडक की तरह उसके किनारे की संस्कृति और जीवन प्रवाह की झांकी पेश करता हुआ | 

जगदीश चंद्र माथुर एक कहानी सुनी यहां 12 वीं सदी से लगभग 300 वर्ष तक कर्नाटक वंश का राज्य था |  सैनिकों में, और हजारों तलवारे घने वन के वृक्षों पर टूट पड़ी थी| देखते ही देखते जंगल के बीच ही चली गई थी हरीश जी देव का अपना घोंसला हो और उन्हें नेपाल भाग जाना पड़ा था| इस धरती के निवासी प्राचीन और नवीन के मिश्रण है जान पड़ता है आदिकाल से आने जाने वालों का काम बंद आ रहा है| जंगल से चली गई धरती को जीतने के लिए उस हाथ पर्याय| बाहर के विषय में अनेक मत हैं| भावों को 18वीं शताब्दी के अंत में लाया गया था., नील की खेती के सिलसिले में| यह लोग दक्षिण बिहार की छोटा नागपुर पठार से लाए गए और वहां की आदिवासी जातियों पूरा मुंडा लोहार इत्यादि के वंशज हैं|  पिछले 10 12 वर्षों में एक नया श्रेष्ठ समुदाय यहां आया पूर्वी बंगाल के शरणार्थी चंपारण में शायद पहला प्रयास किया गया था गंगासागर ने चरणों तक मुंडेला इतिहास की उंगलियां ऐसी जीना पर खिड़की जिसकी हर झंकार एक अलग स्मृति की प्रतिध्वनि रहा है| उस दिन का चंपारण एक सुदूर गांवों में इस बिना की विविध रागनी सुनने को मिली| उनके दैनिक जीवन का अंग है| जिस पात्र में ध्यान रखा जाता है वह सिक्का बनाया जाता है| मधुर और  संस्कृति की अपेक्षा भांगड़ा का सामाजिक जीवन अधिक प्रखर और उल्लास पूर्ण है| उल्लास! रात बीत चली और दिवस का संघर्ष अंधेरे के परदे के पीछे हो  उठा |  धरती देती है किंतु यहां का जन जीवन समृद्धि नहीं बन सका| समराज था उन दिनों| जिस रास्ते पर साहब की सवारी जाति उस पर हिंदुस्तानी अपने जानवर नहीं ले जा सकते थे| यदि किसी आयत के यहां उत्तर शादी विवाह होते तो साहब के यहां नजराना भोजन भेजना पड़ता था: साहब बीमार पड़ता तू उसे इलाज के लिए वसूली होती: साहब हाथी खरीदा तो रात को अपनी गाढ़ी कमाई में से कुछ न कुछ देना पड़ता था| ओके साहब का नाम हां यह मन | भीषण यह सब रोज का  काम था| तत्कालीन शासन नीले घोड़े के हाथ का पुतला था| वह सभी साहू की कोठियों में ठहरते थे |  दक्षिणी बिहार के बागी विचारों का आंसर चंपारण में देर से पहुंची इसलिए गंगा पर पुल बनाने की स्कीम में तत्कालीन शासन में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और यू वर्षों तक चंपारण में गोरे यह ना हो का राज ब्रिटिश साम्राज्य की छत्रछाया में पनपता रहा था |  लोरिया के दक्षिण में अरेराज अरेराज के दक्षिण में केसरिया और फिर वैशाली| यही तो वह पथ था जिससे भगवान बुध अपनी अंतिम यात्रा पर गए| अपनी पृथ्वी है नगरी, गणतंत्र क्योंकि राजधानी वैशाली में अंतिम दर्शन के लिए भगवान ने अपने शरीर को गजराज की तरह घुमाया और बोले आनंद तथागत का यह अंतिम दर्शन है | लिच्छवी रास्ता रोककर खड़े हो गए| बीच में नदी आ गई | अपना भिक्षा पात्र उन्हें दे दिया था | इस वैशाली में अम्रपाली तथागत को अपना अमरकानन समर्पित किया था| आज जैन समाज अपनी इस धरोहर को भूल गया है| ऐसे ही जैसे प्राणी धर्मावलंबी हिमालय की तलहटी भोसा लोटन का माता को भूल गए हैं| ऐसा ही एक ताल है श्रेया मन| बेतिया नगर से 4 मील दूर कच्ची और उबेर हवा सड़क से हम लोग पहुंचे एक मनोरम जंगल के किनारे त्रयोदशी का चांद अपना साम्राज्य बनाए हुए था | बेतिया राज ने इस जंगल को सुरक्षित रखा और अब यह 130 एकड़ जमीं का अभय चित्र है जंगल विभाग की ओर से  आम इत्यादि के पेड़ लगाए जा रहे हैं | और इस तरह मंकी जल का विद्युत सिद्धांत के अनुसार शोध होता रहता है बेतिया नगर से अनेक अमीर बीमार जल को  घड़े में  मांगते हैं | ओ सदानीरा!  पर आज तेरी पूजन के लिए जिस मंदिर की प्रतिष्ठा हो रही है, उसकी बहुत गहरी इसे तू ठुकराना पाएगी लेकिन जिनकी बनाई मूर्तियों में  प्राण का संचार होते  ही सदियों से भगन मंदिर आयोजित उठेगी | आज तो बिना जांच पड़ताल की दोषारोपण करना ही सामान्य व्यवहार है | आज तो छोटी सी बात को बड़ा कर समाचार पत्रों एवं गुमनाम चीटियों में लिख भेजना मामूली बात है | आदित्य जूली जूली का है जैसा भितिहारवा नाश्ता भी अपेक्षित है कैसी है चंपारण की भूमि?  मनुस्मृति के हाथों अपनी बड़ी से बड़ी अपने के लिए प्रस्तुति रहती है गांधीजी गांधीजी द्वारा पावन किए गए स्थलों में स्मारक बना रहे हैं लेकिन किया यहां  टिक पाएंगे | इन विद्यालयों का आधार क्या था ? इस बारे में गांधीजी ने एक पत्र लिखा चंपारण की तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर जिसमें शिक्षा संबंधी उनके आदर्शों पर प्रकाश पड़ता है..,,,,, मैंने इन स्कूलों में किसी तरह का नपा तुला पाठ्यक्रम चालू नहीं किया है, क्योंकि मैं तो पुरानी लीक से हटकर चल रहा हूं |  वर्तमान शिक्षा पद्धति और ही मानता हूं |किंतु उसी चंपारण में इनकी दूसरी स्थिति को हमारा शिक्षित समाज हम हम नहीं कर पाया मैंने गांधी जी का तत्कालीन पत्र पड़ा है |ओ सदानीरा || जगदीश चंद्र माथुर || जगदीश चंद्र माथुर वस्तुनिष्ठ प्रशन और सारांश


 

ओ सदानीरा जगदीश चंद्र माथुर   O sadanira jagdish chandra mathur

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *